Tuesday, August 4, 2009

कहीं मैं अबोध तो नहीं

ज्यों विहंग कोई
सुदूर अम्बर से
अपने तुक्ष चक्षुओं से
आंगन में
किसी अबोध बालक को
किसे खाद्य के साथ
देखकर
क्षण भर में ही आकर
छीन लेता है खाद्य
और
और वो अबोध बालक
या तो अचंभित सा रह जाता है
या किलकारी मार कर रोता है
पर इसके सिवा कुछ नहीं कर पाता है
.................
.................
उसी तरह
मेरे जीवन के
शांत मौसम में भी
हवाओं का एक
विशाल झोंका आया
या यूँ कहो
कि
एक बवंडर उठा
और
पलभर में ही
मेरे जीवन के
एक-एक तिनके को
उड़ा ले गया
और मैं
मैं
.
.
.
.
मैं देखता ही रह गया
मैं देखता ही रह गया

कहीं मैं.................
कहीं
मैं अबोध तो नहीं
कहीं मैं अबोध तो नहीं

3 comments:

  1. kavita likhne mai bahut gahrre soch hai aapki

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  2. ye sirf ek kavita hi nahi balki satya hai......kai baar humarey saath aisa hota hai ki humarey aankhon ke saamney sab kuch tinkey ki tarah bikhar jaat hai aur hum ek abodh balak ki tarah rotey bilakhtey reh jaatey hain .........par kuch kar nahi paatey..... bahut khub keep this spirit live on writing such type of poems

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