Saturday, August 8, 2009

कहीं ये मेरी हार का पूर्वाभास तो नहीं!

आज के युग में,
वर्तमान परिपेक्ष्य में,
मानव की पहचान,
कठिन हो गयी है!
मूल्य हीन जीवन,
केवल और केवल,
जीने की तृष्णा,
अकर्मदात सब कुछ
पाने की चाह,
सपनो में सदैव दिखती,
मंजिल की सीधी राह!
मानव का मुखौटा पहने,
मनवो की इस भीड़ में,
असली मानव की पहचान,
नामुमकिन सी लगती है!
अनुभूति एवं अभिव्यक्ति की,
अपरिपक्वता,
यह विडम्बना पूर्ण स्थिति,
इस से अंत तक असहमति है मेरी,
-
कभी-कभी
लेखनी त्याग कर,
संघर्ष रोककर,
कहीं दूर चले जाने की इच्छा,
जाग्रत होती है मेरे मन में,
कहीं ये मेरी हार का,
पूर्वाभास तो नहीं!
मेरी हार का,
पूर्वाभास तो नहीं!

3 comments:

  1. aap to likhate rahiye. Karmanye wadhikaraste ma faleshu kadachan.

    ReplyDelete
  2. bacche subah subah good morning agar aise shabdon se karoge to dil to royega he...

    ReplyDelete
  3. This comment has been removed by a blog administrator.

    ReplyDelete