Sunday, November 1, 2009

''जब तुम मिली''

जिंदगी में बिखरे थे,
न जाने कांटे कितने,
तुम मिली तो,
खिल गए न जाने फूल कितने!!

जिंदगी एक अधूरा
खवाब नज़र आता है,
तुमसे मुलाकातों का,
एक-एक पल याद आता है!!

Monday, September 21, 2009

!!वो नहीं आये बार बार जिनकी याद आई!!

मैं नहीं जानता,
मेरे खेतो में,
कितनी बार,
सरसों फूली,
कितनी बार,
मेरी बगिया अमराई!
बस जानता हूँ,
तो ये,
की वो नहीं आये,
बार बार जिनकी याद आई!!

कितने सावन सूखे गुज़रे,
कितने भादव भीगे,
कितने गर्मी जेठ पड़ी,
और कितनी ठंढी माह,
कहाँ शहर है,
कहाँ गाँव है,
किसकी कैसी राह!
मैं न जानू कितनी लू लग गयी मुझे,
और कितनी फटी बेवायीं!
बस जानता हूँ,
तो ये,
की वो नहीं आये,
बार बार जिनकी याद आई!!

नहीं जानता की मैं कौन हूँ?
क्या हूँ?
कहाँ का वाशिंदा हूँ?
कह नहीं सकता कि
क्या सचमुच मैं जिन्दा हूँ?
मुझे नहीं पता है,
कि सुखा कब कब आया,
और कब कब नदी उफनाई!
बस जानता हूँ,
तो ये,
की वो नहीं आये,
बार बार जिनकी याद आई!!

^^^^^^तुम मेरे जीवन में बार बार आती हो!^^^^^^^

ये बात नहीं है कि,
तुम मेरे जीवन में,
कभी आती नहीं हो,
आती हो,
बार बार आती हो!

सुगंध के एक झोके की तरह,
और,
बीते हुए दिनों की खुशबू,
अपने साथ लाती हो,
आती हो,
बार बार आती हो!

कल्पना की एक छाया की तरह आकर,
मुझे अपने साथ लेकर,
भूतकाल के खंडहरों में घुमती हो,
आती हो,
बार बार आती हो!

पर तुम एक ही पल में,
अदृश्य कहाँ हो जाती हो,
क्या तुम मुझे,
सिर्फ सताने आती हो,

मैं तो तुम्हे,
अपने पास पाकर,
दौड़ता हूँ,
तुम्हे कर बद्ध करने को,
तुम्हे करापाश में भरने को,

पर,
पर मेरे हाथ,
पर मेरे हाथ खुले ही रह जाते हैं,
और तुम,
तुम गायब हो जाती हो!

तो फिर क्यों आती हो,
उत्तर दो...........
क्यों आती हो?
क्यों आती हो?

क्यों आती हो?
क्यों आती हो?


आती हो,
बार बार आती हो!

SSSSSSSS आत्मकेंद्रीकरण SSSSSSSS

रोटी, कपडा और मकान
जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं,
और इन तीनो चीजों के नाम की तीन रेखाएं,
इन तीन रेखाओ से निर्मित त्रिभुज,
इस त्रिभुज के अन्तः वृत्त में फसा,
मानव का जीवन,
मानव-जो कभी इन से परे कुछ सोच ही नहीं पता,
सोचता है बस,
अपना-पराया,
अपना घर,
अपने लोग,
अपना स्वार्थ,
और स्वार्थ सिद्धि,
इन्ही सब में जीवन सिमटता जा रहा है,
परमार्थ की कहीं कोई भावना ही नहीं रही,
अन्तः वृत्त और त्रिभुज के बाहर आकर,
परि वृत्त बनाने की कोई कोशिश ही नहीं करता है,
हर कोई बस अपने को देख रहा है,
दुनिया, देश या समाज कोई देखता ही नहीं है,
यही शून्यता,
यही आत्मकेंद्रीकरण,
मानव होने के वास्तविक मूल्यों में,
गिरावट का मुख्या कारण है!!

$$$$$$$$$$$$$$$ हम प्यासे कुएं हैं $$$$$$$$$$$$$$$

हो गए हैं सैकडो साल,गाँव को छूटे हुए,
जोड़ता हूँ आज भी,स्वपन मैं टूटे हुए,
जी रहा हूँ जिंदगी,मैं अधूरे मन से,
निकलता नहीं गाँव जाने क्यों मेरे जीवन से!!

****************************************************

उगी हो फसलें तो खेत खलिहान होते हैं,
नहीं तो बंजर बीराने मैदान होते होते हैं,
यूँ तो जीने को जीते हैं सभी यहाँ पर,
पर जो दूसरो के काम आ जाये वही इन्सान होते हैं!!

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भाग्य को कभी जीने का आधार नहीं माना है,
प्यार को प्यार माना है कभी बाज़ार नहीं माना है,
माना की गरल है जीवन,
पर जीवन को कभी दुखो का सार नहीं माना है!!

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हर शाम यहाँ हमे तनहाइयों में गुजारी है,
आँखों में बसी बस चाहत अब तुम्हारी है,
हम तुम्हे जिंदगी भर के लिए पायें न पायें,
सपनो में तुम्हे पाने की आरजू हमारी है!!

****************************************************

मैं इन्सान हूँ,बहक जाता हूँ,
सिर्फ अंगारों को देखकर दहक जाता हूँ,
तुम जब भी पास से गुजरती हो,
तुम्हारी खुशबू से मैं बी ही महक जाता हूँ!!

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***************सपना********************

सपने टूटे,
उम्मीदें बिखरी,
अपने हुए पराये,
अब चादर के घेरे से,
मैं पैर निकलना चाहता हूँ!

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हर सपने के पीछे,
एक सत्य दिखाई देता है,
पर मेरा सपना,
एक दिवा स्वप्न है,
यह खुली हुई आँखों से देखा,
मन की इच्छाओ से बना हुआ,
एक अधूरा वृत्त चित्र है,
वो भी रंग हीन!

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Saturday, August 15, 2009

@@@@ मेरा विरोध @@@@

नहीं कर सका मैं,
भौतिक विरोध,
अपने जीवन में,
परिस्थितियों के बवंडर का,

विरोध किया,
पर वैचारिक,
नि:शब्द रहा मैं,
निस्तब्ध रहा मैं,
पर लेखनी चली,
और शब्द लिखे!

एक विचार,
जो मेरे मन में आया,
उस बवंडर के बाद,
कि..............
मुझसे अच्छे तो वे तरुवर हैं,
जो,
विपदा के बाद भी,
सुरक्षित रहते हैं!
अब,,,,,
फर्क ही क्या पड़ता है,
जड़ और चेतन में!

मेरी ये दोनों भुजाएं,
जो बल का प्रतीक मणि जाती हैं,
नदी के उन दो किनारों की तरह हैं,
जो,
नदी में किसी डूबने वाले को देख कर,
सिर्फ देखते रहते हैं,
पर कर कुछ नहीं पाते!
पर कर कुछ नहीं पाते!

*******रेत का परिचय*******

लोग कहते हैं कि,
रेत में घर नहीं बनते!
या,
यूँ कहो कि,
रेत के घर क्षण भ्रंगुर होते हैं!
अच्छा ही है,
कि घर नहीं बनते,
क्योंकि गर घर होंगे,
तो बंधन होंगे,
गर बंधन होगा,
तो विकास नहीं!

घर नहीं बनते तो क्या हुआ,
ये रेत आश्रय तो देती है!
अपने उपर पड़ने वाले,
हर एक पाँव को!
कितनी सहेजता से,
कितनी कोमलता से,
अपने में समेट लेती है!
इसमें मोह नहीं होता,
पर सहृदयता तो होती है!

यह किसी को बंधती नहीं है,
क्योंकि बंधा हुआ मन,
विकास मार्ग पर बढ नहीं सकता!

सत्य है रेत में,
तपन होती है,
पर यह तपन,
तन को जलती है,
मन को नहीं,
ये रेत तो,
मन को शांत करती है,

अब आप को क्या चाहिए,
तन कि शांति,
या मन कि शांति,
ये आप पर निर्भर है!

++++++++तुम केंद्र बिंदु हो++++++++

यूँ ही रोज़,
हर रोज़,
हर पल,
मैंने कोशिश की,
कि............
कि मैं तुमसे दूर चला जाऊं,
दूर--------कहीं दूर------------बहुत दूर,
और मैं चला भी गया,
मीलों चला,
चलता रहा,
चलता रहा,
चलते चलते पाँव भर आये,
फिर मैंने मुड़कर देखा,
पर यह क्या?
तुम तो मेरे उतने ही करीब हो,
जितने पहले थी,
शायद मुझे पता ही नहीं,
कि मैं उस परिधि पर चल रहा था,
जिसकी तुम केंद्र बिंदु हो,
मैं चाहे जितना भी चलूगा,
चाहे जितना तुमसे दूर जाने कि कोशिश करूंगा,
पर तुमसे उतना ही करीब रहूँगा,
जितना मैं पहले था!

++++++++भविष्य के पटल पर++++++++++

भविष्य के पटल पर,
मैंने अगाडित चित्र बनाये थे,
समय की धार,
कुछ यूँ प्रवाहमान हुई,
चित्र तो चित्र,
चित्रों के निशान भी मिट गए,
शेष हैं सिर्फ,
धुंधली सी यादें,
जीवंत करती हुई,
सपनो के उस संसार को,
जिसे मैंने चक्षुओ में बसाया था,
जिसे मैंने अश्रुओ में बहाया है!
यही द्वंद्वात्मक स्वरुप,
और सपनो के मधुर चित्र,
जीवन के प्रत्येक कदम पर,
आज भी उपस्थित हैं!

पर जीवंत नहीं!
जीवंत नहीं!

Saturday, August 8, 2009

कहीं ये मेरी हार का पूर्वाभास तो नहीं!

आज के युग में,
वर्तमान परिपेक्ष्य में,
मानव की पहचान,
कठिन हो गयी है!
मूल्य हीन जीवन,
केवल और केवल,
जीने की तृष्णा,
अकर्मदात सब कुछ
पाने की चाह,
सपनो में सदैव दिखती,
मंजिल की सीधी राह!
मानव का मुखौटा पहने,
मनवो की इस भीड़ में,
असली मानव की पहचान,
नामुमकिन सी लगती है!
अनुभूति एवं अभिव्यक्ति की,
अपरिपक्वता,
यह विडम्बना पूर्ण स्थिति,
इस से अंत तक असहमति है मेरी,
-
कभी-कभी
लेखनी त्याग कर,
संघर्ष रोककर,
कहीं दूर चले जाने की इच्छा,
जाग्रत होती है मेरे मन में,
कहीं ये मेरी हार का,
पूर्वाभास तो नहीं!
मेरी हार का,
पूर्वाभास तो नहीं!

+++कुछ पुरानी यादें+++

जीत जायेगे हम,
इस उम्मीद में बैठे हैं,
उम्मीद की उम्मीद में,
उम्मीद गवां बैठे हैं!

बैठा हुआ हूँ मैं,
और ये महफिल सजी है,
आज फिर रोया मेरा दिल,
दूर कहीं शहनाई बजी है!

#################

मायूस जिंदगी है,
हैं सांसे तन्हां तन्हां,
कहाँ खो गए हो तुम,
मैं ढूनू कहाँ कहाँ?

रुसवा हुए हो तुम,
रुसवा सारा जहाँ है,
मेरे खुदा बता दे,
मेरी जिंदगी कहाँ है?

Wednesday, August 5, 2009

मत आओ मेरे जीवन में,,,,,,,,,,मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा!!

मत आओ मेरे जीवन में,मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा!!
मत आओ मेरे जीवन में,मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा!!


सिद्धांत हमारा जीवन है,
तुम लौकिक जग में जीती हो!
मैं जिस बंधन से दूर आ चुका,
तुम उस बंधन में रहती हो!!

मैं तुमको उस मिथ्या जीवन सा संसार नहीं दे पाऊँगा!
मत आओ .............

मैंने पुरजोर उजालो में,
अंधियारे को देखा है!
उस रेखा से दूर आ चुका,
जो की जीवन रेखा है!!

मैं तुमको उस जीवन रेखा का आधार नहीं दे पाऊँगा!
मत आओ .............

मैं भ्रमित भ्रमित सा दिन में रहता,
रहता हूँ कुंठित मैं रातो को!
मुझको तुम न बातो में बहकाओ,
है मैंने जीता बातो को!!

मैं कुंठित मन से तुमको इच्छाओ का प्रतिकार नहीं दे पाऊँगा!
मत आओ .............

टूट गया हर स्वप्न यहाँ तो,
और टूटी हर आशा है!
मेरी केवल प्यास न पूंछो,
यहाँ आधा जग ही प्यासा है!!

ऐसे हालातो में मैं तुम को जल धार नहीं दे पाऊँगा!
मत आओ .............

अमृत भी तो गरल हुआ है,
हर पौरुष अब निबल हुआ है!
जो भी चलता सत्य राह पर,
देखो कौन सफल हुआ है!!

तुम सत्य झूठ में किसे चुनो ये अधिकार नहीं दे पाऊँगा!
मत आओ .............

घर में लोग सिसकते हैं,
और जाने कितने भूखो मरते हैं!
कितने पापी पेट की खातिर,
जाने क्या क्या करते हैं!!

इस क्षुधा अग्नि के घर में रहकर मैं तुमको श्रंगार नहीं दे पाऊँगा!
मत आओ मेरे जीवन में,मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा!!


मत आओ मेरे जीवन में,मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा!!
मत आओ मेरे जीवन में,मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा!!

Tuesday, August 4, 2009

वो हर वक़्त मेरे साथ ..........होती है

मैंने अपनी किताबों में रख रखे हैं
वो फूल
जो वो मुझे
अपनी चिट्ठियों में भेजती थी
उन चिट्ठियों
और
उसकी यादों कि एक
लम्बी श्रंखला है
और उस श्रंखला की एक एक कड़ी में
निहित मेरा जीवन
उसकी यादें मेरी परछाई हैं
रात रानी की खुशबू,
समंदर के तेज थपेड़े
घास के मोती
और शहर के आम रास्ते
जिन जिन के साथ
मेरा उसका साथ रहा
मुझे वक़्त बेवक्त रोक लेते हैं
और सवाल करते हैं
आज अकेले ही
शायद वो नहीं जानते
की मैं अकेला कभी नहीं होता हूँ
वो हर वक़्त मेरे साथ होती है
मेरे मन ,मेरे ह्रदय , मेरे मस्तिस्क पर
बस उसका ही नियंत्रण है,
उसके बिना मेरी कल्पना ही
नहीं की जा सकती
वो हर वक़्त मेरे साथ
यादों की तरह होती है
यादों की तरह होती है

कहीं मैं अबोध तो नहीं

ज्यों विहंग कोई
सुदूर अम्बर से
अपने तुक्ष चक्षुओं से
आंगन में
किसी अबोध बालक को
किसे खाद्य के साथ
देखकर
क्षण भर में ही आकर
छीन लेता है खाद्य
और
और वो अबोध बालक
या तो अचंभित सा रह जाता है
या किलकारी मार कर रोता है
पर इसके सिवा कुछ नहीं कर पाता है
.................
.................
उसी तरह
मेरे जीवन के
शांत मौसम में भी
हवाओं का एक
विशाल झोंका आया
या यूँ कहो
कि
एक बवंडर उठा
और
पलभर में ही
मेरे जीवन के
एक-एक तिनके को
उड़ा ले गया
और मैं
मैं
.
.
.
.
मैं देखता ही रह गया
मैं देखता ही रह गया

कहीं मैं.................
कहीं
मैं अबोध तो नहीं
कहीं मैं अबोध तो नहीं

Thursday, July 30, 2009

जिंदगी हर रोज़ एक नया मोड़ लेती है,
और किस्मत हर मोड़ पे मेरा साथ छोड़ देती है,
उम्र के इस पड़ाव पे भी मैं अफ़साने नए लिखता हूँ,
दर्द यह है की अब मेरी साँसे मेरा साथ नही देती हैं.
अब हमे भी जिंदगी में कोई आफ़ताब चाहिए,
बस आप सा ही कोई हमे भी जनाब चाहिए,
वो गुलाब जो मैं तुम्हें कभी भेज ही नही पाया,
आज उन फूलों का मुझे जवाब चाहिए.